तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना| उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया |
मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था| उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी |
कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी, उसने क्रिस्टचिँन टोपोग्राफी नामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं, वह भारत का स्वामी हैं | मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग ६२९ इसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ सी-यू-की में लिखता हैं की सैंकडो वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर राज करता था | वह कहता हैं कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था| हेन् सांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया| वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की| परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास, किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में भेज दिया| मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी| उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया और बौद्ध मठो को तुडवा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया |
गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर, उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया| किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड से गिरते है हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था| उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे| उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया| कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार छेत्र में ७०० ब्राह्मणों को अग्रहार (ग्राम दान ) में दिए| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं| मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे | हनोल ,जौनसार –बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, इससे हूण नामक शिवभक्त ने बनवाया था |
हर हर महादेव का जय घोष भी हूणों से जुडा प्रतीत होता है क्योकि हूणों कि दक्षिणी शाखा को हारा-हूण कहते थे , संभवत हारा-हूण से ही हारा/हाडा गोत्र कि उत्पत्ति हुई हैं| हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों के अनेक गांव हैं| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं| इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्त्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं | बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं| बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| यह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था|
इस प्रकार हम देखते हैं की हूण और उनका नेता मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं| शिवरात्रि के दिन शिव भक्त मिहिरकुल हूण को भी याद किया जाना अप्रासंगिक नहीं होना चाहिए|
(लेखक राजकीय महाविधालय लक्सर,
हरिद्वार में इतिहास विभाग के प्रवक्ता हैं| )
सन्दर्भ
1. K C OJHA, HISTORY OF FOREIGN RULE IN ANCIENT INDIA, ALLAHBAD, 1968.
2. PRAMESWARILAL GUPTA, COINS, NEW DELHI, 1969.
3. R C MAJUMDAR, ANCIENT INDIA.
4. RAMA SHANKAR TRIPATHI, HISTORY OF ANCIENT INDIA, DELHI, 1987.
5. परमेश्वरी लाल गुप्त, प्राचीन भारतीय मुद्राए, दिल्ली ,1987 |
संभवत हारा-हूण से ही हारा/हाडा गोत्र कि उत्पत्ति हुई हैं| हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था|
ReplyDelete@ हाड़ा लोगो से हाडौती का नामकरण नहीं हुआ बल्कि हाड़ौती में रहने के कारण हाड़ा वंश को लोग हाड़ा कहने लगे|
हाड़ौती के नामकरण के पीछे जानकारी के लिए दिनेशराय द्विवेदी जी की यह पोस्ट पढ़े जिसमे हाड़ौती के नामकरण के बताया गया तर्क ज्यादा तर्क संगत प्रतीत होता है।
http://anvarat.blogspot.com/2011/06/blog-post_27.html
ज्ञानवर्धन लेख के लिए आभार
ReplyDeletethanks ratan singhji.
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